राजस्थान में चुनाव से पहले बीजेपी की नई सोशल इंजीनियरिंग का दांव उल्टा पड़ सकता है। वजह यह है कि बीजेपी ने राजपूत और ब्राह्मणों पर दांव खेला है। मोदी-शाह और जेपी नड्डा के सोशल इंजीनियिरंग फाॅर्मूला में एससी-एसटी और ओबीवी वर्ग के नेताओं को जगह नहीं मिली है। चुनाव में इन वर्ग को वोटर्स की नाराजगी पार्टी की झेलनी पड़ सकती है।राजनतिक विश्लेषकों का कहना है कि नई सोशल इंजीनियरिंग विधानसभा चुनावों में कसौटी पर रहेगी। बता दें, विधानसभा चुनाव 2018 में पूर्वी राजस्थान के एससी-एसटी सीटों से बीजेपी का सूपड़ा साफ हो गया था। कुल 39 सीटों में से पार्टी को मात्र एक सीट वसुंधरा के धौलपुर से शोभारानी कुशवाह ने जीत दिलाई थी। अब वह भी पार्टी में नहीं है। पार्टी ने एससी-एसटी वर्ग को साधने के लिए ठोस पहल नहीं की है।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष पर ब्राह्मण की नियुक्ति और नेता प्रतिपक्ष पर राजपूत की नियुक्ति कर बीजेपी ने जो बिसात बिछाई है वह उलटी पड़ सकती है। चुनाव से पहले सतीश पूनिया को बीजेपी प्रदेश अध्यक्ष से हटाने से प्रदेश का जाट समुदाय नाराज हो सकता है। कांग्रेस ने इस मुद्दे को खूब उछाला है। पीसीसी चीफ गोविंद सिंह ड़ोटासरा ने बीजेपी पर ओबीसी की अनदेखी करने का आरोप लगाया है। राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि बीजेपी के रणनीतिकारों ने पूर्वी राजस्थान के सियासी समीकरणों की अनदेखी है। 2018 के चुनाव परिणाम से सबक नहीं लिया है। पूर्वी राजस्थान में कांग्रेस को बंपर जीत मिली थी। पूर्वी राजस्थान में बीजेपी के बड़े नेता किरोड़ी लाल मीना साइड लाइन है। पार्टी में किरोड़ी लाल के पास कोई बड़ा पद नहीं है। ऐसे में किरोड़ी के दम पर बीजेपी वापसी कर पाएगी?
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि ब्राह्मण-राजपूत के सियासी समीकरण के पार्टी सत्ता में वापसी नहीं कर सकती है। वैसे भी राजस्थान की राजनीति में दोनों समुदाय बीजेपी के पक्ष में ही मतदान करते रहे हैं। ऐसे में पार्टी ने प्रदेश की बड़ी आबादी एससी-एसटी और ओबीसी को साधने के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाए है। पश्चिम राजस्थान में जाट वोटर्स को साधने के लिए भी पार्टी ने कारगर पहल नहीं है। वसुंधरा राजे के रोल को लेकर भी पूरी तस्वीर साफ नहीं हो पाई है।