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संकट में गहलोत: लाल डायरी के बवंडर से बेदाग कैसे निकलेगा राजनीति का जादूगर

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जोधपुर. प्रदेश के सबसे चतुर राजनीतिज्ञ माने जाने वाले मुख्यमंत्री अशोक गहलोत एक बार फिर राजनीतिक बवंडर में घिर गए है। हालांकि इस बार अपनों के बजाय विपक्ष उन पर हमलावर है। चुनावी वर्ष में गहलोत को घेरने में विपक्ष कोई कसर छोड़ने के मूड में नहीं लगता। गुटबाजी में बंटे विपक्ष के हाथ लाल डायरी के रूप में बटेर लग गई। ऐसे में वे पूरी तरह से एकजुट होते नजर आ रहे है। अब देखने वाली बात यह है कि राजनीति का जादूगर माने जाने वाले गहलोत इस सियासी संकट से बेदाग किस तरह से निकल पाते है।
राजनीति में पचास साल पूरे कर चुके गहलोत को हमेशा अपनों के साथ ही पार्टी के भीतर संघर्ष करना पड़ा। यह पहला अवसर है जब विपक्ष उनकी बेदाग छवि पर लाल डायरी के माध्यम से कुछ दाग तलाश रहा है। गहलोत राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी माने जाते है। अक्सर उन्होंने अपनी क्षमता से हर किसी को हैरान किया है। राजस्थान से लेकर दिल्ली तक के सियासी गलियारों में गहलोत की राजनीतिक जादूगरी के कई किस्से मशहूर है। गहलोत के बारे में कहा जाता है कि उन्हें अपने विरोधियों को राजनीति से ठिकाने लगाने में महारथ हासिल है।
गुढ़ा ने लगाए ये आरोप
गुढ़ा का दावा है कि उनके पास मौजूद लाल डायरी में सियासी संकट के दौरान बीजेपी के विधायकों को करोड़ों रुपए देकर खरीदने का राज है। राज्यसभा चुनाव के दौरान भी विधायकों को करोड़ों रुपए देकर खरीदने का रहस्य भी इसमें मौजूद है। वैभव गहलोत को आरसीए अध्यक्ष बनाए जाने के दौरान वोटों खरीद के पुख्ता प्रमाण होने का दावा भी उन्होंने किया। राज्यसभा चुनावों के दौरान निर्दलीय विधायकों को क्या दिया, इसका लेखाजोखा डायरी में होने का दावा। साथ ही लाल डायरी में लेन देन के सभी हिसाब विधायकों और मंत्रियों के नाम सहित लिखे होने का दावा उन्होंने किया।
क्या गहलोत बेदाग निकल पाएंगे
राजनीतिक हलकों में चर्चा है कि क्या गहलोत मंत्रिमंडल से बर्खास्त किए गए राजेन्द्र सिंह गुढ़ा की ओर से लाल डायरी के नाम पर लगाए गए आरोपों से बेदाग निकल पाएंगे? राजनीतिक विशलेषकों का मानना है कि गहलोत इतने कच्चे खिलाड़ी नहीं है कि अपने इतने महत्वपूर्ण राज गुढ़ा के पास छोड़ देंगे।यदि वास्तव में गुढ़ा इतने बड़े राजदार होते तो यह तय था कि उनकी बर्खास्तगी नहीं होती।
शुरुआत में ही करना पड़ा विरोध का सामना
वर्ष 1980 के लोकसभा चुनाव में जीत हासिल करने के साथ ही गहलोत को उस दौर के कांग्रेस के क्षत्रपों परसराम मदेरणा, खेतसिंह राठौड़, रामसिंह विश्नोई, मानसिंह देवड़ा, नरेन्द्र सिंह भाटी जैसे कद्दावर नेताओं के विरोध का सामना करना पड़ा। इन लोगों के बीच एक अघोषित समझौता था कि गहलोत गांव की राजनीति से दूर रहेंगे और सिर्फ शहर तक सीमित रहेंगे। इसके बावजूद गहलोत ने बीच का रास्ता बना अपनी अलग पहचान कायम की। यहीं कारण रहा कि उन्हें सितम्बर 1985 में प्रदेश कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बना दिया गया। यहां से गहलोत ने अपने राजनीतिक सफर की उड़ान तेजी से भरी।
आसान नहीं था पहली बार मुख्यमंत्री बनना
वर्ष 1998 के विधानसभा चुनाव कांग्रेस ने गहलोत के प्रदेशाध्यक्ष रहते लड़ा और बंपर जीत मिली। उस समय कांग्रेस केकई वरिष्ठ नेता मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे, लेकिन गहलोत ने अपने रणनीतिक कौशल के दम पर बाजी मार ली। दूसरी बार बनने के दौरान वर्ष 2009 में उनके सामने तत्कालीन प्रदेशाध्यक्ष डॉ. सीपी जोशी मजबूत दावेदार थे, लेकिन जोशी एक वोट से चुनाव हार रेस से बाहर हो गए।
तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने में आया था जोर
गहलोत को वर्ष 2018 में तीसरी बार प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने में बेहद जोर आया। सचिन पायलट इस पद के लिए अड़ गए। दिल्ली में लगातार कई बैठक बेनतीजा रही। आखिरकार गहलोत ने अपने अनुभव के दम पर गांधी परिवार को साधा और सचिन को पटकनी दे दी।
जब सचिन ने कर दी बगावत
वर्ष 2020 गहलोत के राजनीति जीवन का सबसे मुश्किल दौर माना जाता है। सचिन पायलट ने अपने कुछ विधायकों के साथ गहलोत सरकार से बगावत कर दी। दो माह तक चले गतिरोध के दौरान कई ऐसे अवसर आए जब लगा कि अब गहलोत की कुर्सी जाने वाली है तभी गहलोत ने एक बार साबित कर दिया कि राजनीति के जादूगर उन्हें ऐसे ही नहीं कहा जाता। आखिरकार सचिन को मात खानी पड़ी। सचिन को पद गंवाने पड़े। इसके बाद गहलोत ने उनको फिर से सिर उठाने का मौका ही प्रदान नहीं किया।

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