2024 के आगामी लोकसभा चुनावों से पहले पश्चिम बंगाल की पहाड़ियों में नए सिरे से राजनीतिक गठजोड़ का दौर चल रहा है. एक ओर जहां भारतीय गोरखा प्रजातांत्रिक मोर्चा (बीजीपीएम) के प्रमुख अनित थापा इस पहाड़ी इलाके के राजनीति पर पूरी तरह से नियंत्रण रखने वाले पहले सरकार-समर्थित नेता बन गए हैं; वहीं अन्य तीन प्रमुख गोरखा नेताओं – हमरो पार्टी के अजॉय एडवर्ड्स, गोरखा जनमुक्ति मोर्चा (जीजेएम) के बिमल गुरुंग, और बिनय तमांग- ने गोरखालैंड की मांग को एक बार फिर से जगाने के लिए आपस में हाथ मिला लिया है.
26 दिसंबर को दार्जिलिंग के विख्यात ‘कैपिटल हिल’ में ‘गोरखा स्वाभिमान संघर्ष’ के नाम से हुए विरोध प्रदर्शन में इन तीनों को एक-दूसरे के बगल में बैठे देखा गया था. तमांग और एडवर्ड्स ने दिसंबर महीने की शुरुआत में दार्जिलिंग से संबंधित मुद्दों पर चर्चा करने के लिए गुरुंग द्वारा नई दिल्ली में आयोजित एक दो-दिवसीय शिखर सम्मेलन में भी भाग लिया था. यह चर्चा मुख्य रूप से गोरखालैंड पर केंद्रित रही थी.
पिछले साल जून में, थापा के नेतृत्व वाली बीजीपीएम ने गोरखालैंड टेरिटोरियल एडमिनिस्ट्रेशन (जीटीए) चुनाव जीता था और फिर दिसंबर में, घटनाओं के एक नाटकीय मोड़ में, उन्होंने पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के समर्थन के साथ दार्जिलिंग नगरपालिका पर भी अपना कब्जा जमा लिया है. उन्हें अब उत्तर बंगाल की पहाड़ियों में एक तेजी से उभरते हुए प्रमुख चेहरे के रूप में देखा जाता है और उनकी पार्टी, बीजीपीएम, दार्जिलिंग की राजनीति में एक महत्वपूर्ण शक्ति बन गई है है.
तमांग, जो कभी गुरुंग के दाहिने हाथ माने जाते थे, बाद में जीजेएम से बाहर चले गए थे और उन्होंने ही साल 2017 में दार्जिलिंग में 100 से अधिक दिनों तक चले आंदोलन के दौरान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ बातचीत की थी. उस आंदोलन के जरिए गोरखालैंड की फिर से उठी मांग को लेकर पहाड़ी क्षेत्र में हिंसा भड़क गई थी. तमांग उस समय शांति स्थापित करने वाले प्रमुख नेताओं में से एक थे. बाद में वे जीटीए प्रशासक बन गए थे.
दिसंबर 2021 में, तमांग कोलकाता में आयोजित एक समारोह के दौरान आधिकारिक रूप से टीएमसी में शामिल हो गए थे और फिर वे दार्जिलिंग में राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी का प्रमुख चेहरा बन गए थे. लेकिन, 2023 में, अबका परिदृश्य वही नहीं रह गया है, क्योंकि तमांग ने टीएमसी से इस्तीफा दे दिया है और पहाड़ियों में ‘गोरखालैंड’ आंदोलन में फिर से जान फूंकने के लिए अपने पूर्व राजनीतिक समकक्षों – गुरुंग और एडवर्ड्स – के साथ हाथ मिला लिया है
तमांग ने कहा कि टीएमसी की पहाड़ी राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है. उन्होंने कहा, ‘टीएमसी की न तो यहां कोई मजबूत पकड़ है और न ही उसकी इसमें कोई दिलचस्पी है. 7 नवंबर को, मैंने इस इलाके में आवश्यक सुधारात्मक उपायों के संबंध में मुख्यमंत्री और टीएमसी के वरिष्ठ नेता अभिषेक बनर्जी दोनों को एक पत्र लिखा था. मुझे इस बारे में उनकी कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली. जब मैंने 20 दिसंबर को अपना पद छोड़ा, तो मुझे अभिषेक बनर्जी के कार्यालय से फोन आया कि दीदी और अभिषेक मुझसे बात करना चाहते हैं, लेकिन मैंने कहा कि अब बहुत देर हो चुकी है. मैं लोगों की भलाई के लिए स्वतंत्र रूप से काम करूंगा.’
तमांग ने कहा कि गुरुंग, एडवर्ड्स और वह गोरखालैंड आंदोलन के संदर्भ में अपनी रणनीति तैयार करने के लिए एक समिति का गठन करने के लिए इसी महीने दार्जिलिंग में एक बैठक करेंगे. उन्होंने कहा, ‘हम सिक्किम या असम में बैठक करेंगे और अपने अगले कदम के बारे में तय करेंगे. साथ ही, इस आंदोलन को जीवित रखने के लिए एक राष्ट्रीय समिति का भी गठन करेंगे. यही समिति 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए (हमारी) राजनीतिक रणनीति भी तय करेगी.’
हालांकि, राजनीतिक विश्लेषक सौरज्या भौमिक का कहना है कि इन तीनों का प्रभाव अब उतना व्यापक नहीं भी हो सकता है, क्योंकि वर्तमान में पहाड़ियों में उनके पास कोई खास बड़ी ताकत नहीं है. भौमिक के अनुसार, ‘एक समय था जब गुरुंग पहाड़ियों के जनजीवन को थाम सकते थे, लेकिन अब ऐसा नहीं है. जीटीए चुनाव से पहले की गई उनकी भूख हड़ताल ने शायद ही किसी का ध्यान खींचा हो. इसी तरह, तमांग अब किसी भी राजनीतिक दल में नहीं है और एडवर्ड्स को नागरिक निकाय की सत्ता से बाहर कर दिया गया है. इसलिए दार्जिलिंग के लोगों पर उनकी पकड़ उतनी मजबूत नहीं है, जितनी 2017 में रही होगी.’
‘भाजपा हमसे किया गया अपना वादा पूरा करे’
गोरखालैंड की मांग को जीवित रखने के लिए एडवर्ड्स अपने आवास पर ही राजनीतिक दलों के साथ बैठकें करते रहे हैं. दिप्रिंट के साथ बात करते हुए हमरो पार्टी के इस नेता ने कहा, ‘भाजपा ने 15 साल पहले दार्जिलिंग लोकसभा सीट जीतकर पश्चिम बंगाल की राजनीति में प्रवेश किया था. इसके बाद से ही हम भाजपा के सांसद चुनते आ रहे हैं; अगले लोकसभा चुनाव से 12 महीने पहले, हम एक स्थायी राजनीतिक समाधान चाहते हैं, जैसा कि उनके घोषणापत्र में वादा किया गया था. इस आंदोलन का मकसद गोरखा समुदाय को एकजुट करना है. अगर हम बंगाल से अलग होना चाहते हैं तो हमें एक होना ही होगा. इस महीने के अंत में, हम एक ‘दार्जिलिंग घोषणापत्र’ जारी करेंगे और वह मांग करेंगे जिसके हम असल में हकदार हैं.’
हालांकि, इसकी राजनीतिक शुरुआत के रूप में दार्जिलिंग नगरपालिका चुनाव जीतने के बमुश्किल 10 महीने बाद ही एडवर्ड्स की हमरो पार्टी ने पिछले महीने उस घटनाक्रम के तहत थापा की बीजीपीएम के हाथों इस निकाय की सत्ता गवां दी थी, जिसमें इसके छह पार्षद बीजीपीएम में शामिल हो गए थे.
पिछले दो हफ्तों के दौरान दार्जिलिंग में हुए राजनीतिक बदलावों के बारे में पूछे जाने पर एडवर्ड्स ने कहा, ‘(यहां) बहुत खेदजनक स्थिति है, जनप्रतिनिधियों को पैसे के लिए बेचा जा रहा है. जरूरत पड़ी तो हमरो पार्टी सुप्रीम कोर्ट का रुख करेगी. यहां के लोग इस बात से नाराज हैं कि उनके वोट का मजाक उड़ाया गया है. थापा का समर्थन करते समय बंगाल सरकार को भी इस बात का एहसास करना चाहिए था कि वे यहां के लोकतंत्र को चोट पहुंचा रहे हैं.’
लेकिन हमरो पार्टी ही राजनैतिक झटका खाने वाला अकेला दल नहीं है. दिसंबर में नगर निकाय में हुए सत्ता परिवर्तन के कुछ ही घंटों बाद ही तमांग ने टीएमसी से इस्तीफा दे दिया था.
थापा ने तमांग के इस्तीफे को एक ‘हथकंडा’ करार देते हुए कहा कि इनमें से किसी भी घटनाक्रम का पहाड़ों पर कोई राजनीतिक प्रभाव नहीं पड़ेगा. उन्होंने कहा, ‘जीटीए चुनाव में (हमरो पार्टी की) जीत के बाद, जनता को एहसास हुआ कि केवल हम दार्जिलिंग के लिए काम कर सकते हैं और इसलिए उन्होंने अपना समर्थन दिया. व्यावहारिक राजनीति अब स्थापित हो चुकी है. लेकिन धरने पर बैठे तीन अन्य नेता यहां की शांति भंग करना चाहते हैं.’
हालांकि, भले ही उनके सहयोगी टीएमसी इस कदम का विरोध करती है, पर अन्य नेताओं की तरह थापा भी गोरखालैंड का एक अलग राज्य चाहते हैं. थापा ने कहा, ‘कम-से-कम ममता बनर्जी इस बारे में ईमानदार हैं कि वह नहीं चाहतीं कि दार्जिलिंग का विभाजन हो. वह भाजपा की तरह झूठे सपने नहीं दिखा रही हैं. यह मुख्य विषय है और तीन दशकों से इसकी मांग रही है. हम अब और देर तक सपनों की दुनिया में नहीं रह सकते.’
‘2023 में स्थाई समाधान ढूंढ़ लेगी बीजेपी’
इस बीच, बीजेपी सांसद राजू बिस्टा ने दिप्रिंट के साथ बात करते हुए यह दावा किया कि उन्हें पूरा विश्वास है कि साल 2023 ही वह साल होगा जब दार्जिलिंग के लोगों को उनके द्वारा लंबे समय से इंतजार का न्याय मिलेगा.
बिस्टा ने कहा, ‘हमारी पार्टी हमारे राष्ट्रीय घोषणापत्र 2019 और राज्य घोषणापत्र 2021 दोनों में ही इस क्षेत्र के लिए एक स्थायी राजनीतिक समाधान के लिए प्रतिबद्ध रही है. केंद्रीय गृह मंत्रालय ने बातचीत की शुरुआत कर दी है और इसके लिए पहले दौर की बातचीत पूरी भी हो चुकी है, उसी से संबंधित बैकग्राउंड वर्क भी किया जा रहा है.’
उनके अनुसार, दार्जिलिंग में जो कुछ हो रहा है, वह टीएमसी के ‘राजनीतिक पाखंड’ का पर्दाफाश होने जैसा है, न कि किसी तरह का राजनीतिक पुनःसंयोजन. उनका कहना था कि, ‘अधिक से अधिक संख्या में पहाड़ी राजनेता और लोग टीएमसी की ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ की नीति के बारे में जागरूक हो रहे हैं. टीएमसी चाहती है कि पहाड़ बंटे रहें. वे पहाड़ी राजनीति में हस्तक्षेप करना चाहते हैं, जैसा कि हाल ही में दार्जिलिंग नगरपालिका में देखा गया था, और वह हमारे क्षेत्र में शांति भंग करना चाहती है.’
राजनीतिक विश्लेषक उदयन बंदोपाध्याय के अनुसार गोरखालैंड की मांग जारी रहेगी और 2024 के चुनावों से पहले और जोर पकड़ेगी. उन्होंने इस बारे में समझाते हुए कहा, ‘हालांकि, इस मांग के साथ एक मुख्य समस्या जुड़ी है- नेता कौन होगा? हालांकि, सभी नेता संयुक्त रूप से अलग राज्य की मांग कर रहे हैं, मगर आखिर में गोरखालैंड का चेहरा कौन होगा? गोरखा पहचान को बचाये रखने के अन्य मुद्दे को ममता बनर्जी ने दार्जिलिंग में एक अर्ध-स्वायत्त निकाय-जीटीए- का गठन करके लगभग हल कर लिया है.’